हवा की मोहताज क्यों रहूँ

सेठी, रेखा एवं उप्रेती, रेखा (सं.) (2009). हवा की मोहताज क्यों रहूँ (पहला संस्करण)। नई दिल्ली, भारत: हार्पर हिंदी, हार्पर कॉलिन्स पब्लिशर्स, आईएसबीएन नंबर 9788172238759

‘हवा की मोहताज क्यों रहूँ’ नई कविता और उसके बाद की सशक्त कवयित्री इंदु जैन की कविताओं का प्रतिनिधि संकलन है, जिसमें उनकी काव्य संवेदना के विविधवर्णीय रचना-जगत का प्रमाण मिलता है। इंदु जैन की कविताएँ मन पर बिंब रचती हैं और ध्वनियाँ शब्दों में घुल संगीत-सी पन्नों पर पसर जाती हैं। उनका रचना-संसार बाह्य और अंतर्मन का ऐसा अनूठा समंजन है, जहाँ मन में बसा एकांत बाहर फैले परिवेश से बतियाता है। कभी उसे बेहद अपना बनाकर अंतरंग का ही हिस्सा कर लेता है तो कभी अपने खोल से बाहर निकलकर स्वयं उसका अभिन्न अंग बन जाता है। बाहर की इस दुनिया में क्या नहीं है – प्रकृति, बिंब, रंग, ध्वनियाँ, गुप-चुप बतियाना, अपने जैसे अनाम चेहरे, सब उनकी संवेदना में घुलने-मिलने लगते हैं। इन कविताओं का संबंध प्रकृति से है तो उसके बीच अपने होने से भी है। यह कविता स्वयं से सतत संवाद की कविता है, जिसमें व्यक्ति, प्रकृति और परिवेश के सभी संदर्भ जुड़ते और खुलते रहते है। यहाँ संबंधों की रागात्मकता भी है और उन्हें नए सिरे से टटोलने, आँकने और सिरजने की सचेत आकांक्षा भी। यह आवेग की नहीं, मनोमंथन के बाद उपजे गहरे बोध की कविता है जहाँ हर अनुभव व्यापक जीवन-सत्य से जुड़कर विमर्श की आँच में तपकर कविता में ढलता है। यह यथार्थ को देखने का एक नया नज़रिया है। उनके यहाँ यथार्थ, घटना-चरित्रों पर आश्रित राजनीतिक-सामाजिक सवालों से बना घटाटोप नहीं बल्कि अंतरंग-बहिरंग से बना एक खाली कैनवेस है जिस पर संवेदनाओं के इंद्रधनुषी रंग अपनी अमिट छाप छोड़ते हैं। संवेदना की तरलता मन को लुभाती है लेकिन उससे भी गहरा असर वैचारिकता की उस धार का है जो सतह के पार देखने वाले दृष्टि-बोध के कारण संभव हुई है। ये कविताएँ एक प्रबुद्ध स्त्री की कविताएँ है जिसने अपने लिए एक स्वतंत्र आकाश सिरजा है, जो बंधनों में नहीं उन्मुक्तता में साकार होता है।

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