Samay ke Sang Sahitya

Sethi, R. & Upreti, R. (Eds.) (2006). Samay ke Sang Sahitya (First Ed.). New Delhi, India: Sanjay Prakashan, ISBN No. 81-7453-261-7

किसी भी रचनात्मक साहित्य का अपने समय के साथ गहरा संबंध होता है। रचनाकार अपने समय का साक्षी है। परिधि पर बैठा तटस्थ दृष्टा मात्र नहीं बल्कि अविरल ऐतिहासिक प्रक्रिया के तहत अपने समय और समाज में मुठभेड़ करता, एक अनिवार्य हस्तक्षेप है। वह अपनी रचना को औज़ार बनाकर सामाजिक संरचना की उलझनों को तार-तार उधेड़ता है। साहित्य एक ओर हमें हमारे समय के सवालों से जूझने की ताकत देता है तो दूसरी ओर मशाल बनकर युग का दिशासंधान भी करता है। वह समय के संग भी है और समय के आगे भी। साहित्य की यही संवेदनात्मक ऊर्जा हमें विवश करती है कि हम नए सिरे से पड़ताल करें, ‘आज के भौतिकवादी युग में साहित्य अपनी दोहरी भूमिका निभाने में कितना सार्थक है?’ हम सभी यह मानते हैं कि आज हम एक कठिन समय से गुज़र रहे हैं। इस बदलते परिवेश में व्यक्ति की यंत्रणा असह्य है। समाजवाद का अंत, भूमंडलीकरण, आतंकवाद जैसे बड़े सवालों के साथ स्त्री-दलित-अल्पसंख्यकों के अनेक मुद्दे भारतीय मनीषा और साहित्यकार को मथ रहे हैं। यह उद्वेलन किसी एक भाषा या रचनाकार तक भी सीमित नहीं है समूचा भारतीय साहित्य अपनी-अपनी भाषा में अपने स्थानीय रंगों में रंगा होकर भी उन्हीं साझे सवालों से जूझ रहा है।

पुस्तक के फ्लैप से

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