Sethi, R. (Ed.) (2019). Main Kahin aur bhi Hota Hoon; Kunwar Narain ki Kavitayen (First ed.). Panchkula, Haryana: Aadhar Prakashan. ISBN 9789387555259
Sethi, R. (Ed.) (2019). Main Kahin aur bhi Hota Hoon; Kunwar Narain ki Kavitayen (First ed.). Panchkula, Haryana: Aadhar Prakashan. ISBN 9789387555259
विज्ञापन का स्वरूप व्यावसायिक और रचनात्मक दोनों है। व्यावसायिक उद्देश्यों को वहन करते हुए भी अपनी संरचना और प्रस्तुति में विज्ञापन सर्जनात्मक माध्यम है। उसका सम्बन्ध जहाँ एक ओर लोगों के सपनों, आशाओं, रुचियों और आवश्यकताओं से है, वहीं उनके जीवन जगत, संस्कृति और रिवाजों से भी है। इसलिए विज्ञापन की संरचना के लिए विशिष्ट रचनात्मक प्रतिभा चाहिए जो भाव और भाषा की क्षमताओं को संचार तकनीकों से प्रभावशाली ढंग से जोड़ पाये। भाषिक अभिव्यक्ति के रूप में विज्ञापन की अपनी अलग सत्ता है। विज्ञापन की भाषा का स्वरूप साहित्यिक भाषा से अलग होता है। वह व्याकरण के रूढ़ ढाँचे तक सीमित न रह कर भाषा का नित नया मुहावरा गढ़ते हुए उसके अर्थ का विस्तार करती है।
इधर, विज्ञापन निर्माण में विज्ञापन एजेंसियों का महत्त्व भी बढ़ता जा रहा है। ये विज्ञापन एजेंसियाँ किस रूप में कार्य करती हैं? उनके तहत कौन-से विभाग होते हैं? भारत की प्रमुख विज्ञापन एजेंसियाँ कौन-सी हैं? उनके कार्यक्षेत्र का फैलाव कितना है? विशिष्ट विज्ञापन एजेंसियों ने भारत में विज्ञापन के प्रचार-प्रसार और कार्यप्रणाली को किस रूप में बदला है? इन सबकी जानकारी विज्ञापन के अध्येताओं के लिए भी आवश्यक है और मीडिया के उन विद्यार्थियों के लिए भी जो स्वयं विज्ञापन के क्षेत्र से जुड़ना चाहते हैं।
विज्ञापन निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है। मीडिया अध्ययन की कक्षाओं में हम साधारणतः विद्यार्थियों को विज्ञापन बनाने का काम सौंप देते हैं। विषय और भाषा में दक्षता रखने वाले विद्यार्थी भी ऐसे समय पर चूक जाते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए ही यहाँ विज्ञापन निर्माण प्रक्रिया को अत्यन्त विस्तारपूर्वक समझाया गया है। एक माध्यम से दूसरे माध्यम की आवश्यकताएँ भी भिन्न होती हैं। माध्यम के आधार पर विज्ञापन निर्माण में कई फेर-बदल करने पड़ते हैं। उन सब विशिष्टताओं को आधार बनाकर ही यहाँ विज्ञापन संरचना के रचनात्मक बिन्दुओं को उकेरा गया है। यह स्पष्टीकरण भी आवश्यक है कि यह पूरी निर्माण-प्रक्रिया की जानकारी विज्ञापन क्षेत्र से जुड़े लोगों से हुई सीधी बातचीत पर आधारित है।
प्रस्तुत दोनों पुस्तकें विश्वविद्यालयों के विभिन्न पाठ्यक्रमों में विज्ञापन को एक विषय के रूप में पढ़ाये जाने की आवश्यकताओं के अनुसार लिखी गयी हैं। मेरे शिक्षण अनुभव ने इस प्रयास में मेरी मदद की। इन्हें लिखते हुए मेरे सम्मुख केवल विद्यार्थी थे और उनकी जिज्ञासाएँ। मेरी यह कोशिश रही है कि विद्यार्थियों को व्यावहारिक जानकारी मिले, जिससे अपने अध्ययन का प्रयोग आजीविका से जुड़े क्षेत्रों में कर पायें। इन पुस्तकों में मैंने यह प्रयास किया है कि बहुत से उदाहरण देते हुए अपनी बात कहूँ जिससे विज्ञापन निर्माण की पूरी प्रक्रिया स्पष्ट हो जाये। इन पुस्तकों में विज्ञापन के स्वरूप, उसकी संरचना एवं उसके प्रभावों को लेकर विस्तृत शोध किया गया है। ‘विज्ञापन डॉट कॉम’ में विशेष रूप से प्रमुख विज्ञापन एजंसियों, विशिष्ट विज्ञापनों तथा विज्ञापन जगत की महत्वपूर्ण हस्तियों के प्रोफाइल प्रस्तुत हैं।
स्त्री लेखन, स्त्री की चिंतनशील मनीषा के विकास का ही ग्राफ है जिससे सामाजिक इतिहास का मानचित्र गढ़ा जाता है और जेंडर तथा साहित्य पर हमारा दिशा-बोध निर्धारित होता हैI एक मानवीय इकाई के रूप में स्त्री और पुरुष, दोनों अपने समय व यथार्थ के साझे भोक्ता हैं लेकिन परिस्थितियाँ समान होने पर भी स्त्री दृष्टि, दमन के जिन अनुभवों व मन:स्थितियों से बन रही है, उसमें मुक्ति की आकांक्षा जिस तरह करवटें बदल रही है, उससे यह स्वाभाविक है कि साहित्यिक संरचना तथा आलोचना, दोनों की प्रणालियाँ बदलेंI स्त्री-कविता पर केन्द्रित इस अध्ययन का आधार बिंदु स्त्री-रचनाशीलता को समझने की कोशिश हैI स्त्री-कविता की पहचान और उसके भीतर के द्वंद्व को लेकर जो बिम्ब मन में बनता है उसमें उलझे धागों की माफिक कई कोर-किनारे एक साथ हैं।
साहित्य की दुनिया में नब्बे के बाद से अस्मितावादी साहित्य का नया उभार, स्त्री-कविता के लिए नयी ज़मीन तैयार करता दिखाई पड़ता है। स्त्री-विमर्श ने इसे अलग ढंग से पोषित करते हुए पैनी धार दी। इस दौर में, स्त्री रचनाकार अपनी अस्मिता के प्रति सचेत होकर, सामाजिक भेदभाव की नीतियों को प्रश्नांकित करने लगीं। इसके बावजूद, ऐसा नहीं था कि इस कविता का भाव जगत यहीं तक सीमित रहा हो लेकिन चर्चा के केंद्र में यही सरोकार रहे। ज़ाहिर तौर पर इसके दो प्रभाव हुए। कुछ स्त्री रचनाकारों ने अपने लिए यह दायरा चुन लिया और दूसरी तरफ, आलोचना में भी इस कविता का मूल्यांकन सीमित दृष्टि से होने लगा। ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि यदि इस साहित्य को अस्मिता के लेंस से न देखकर, साहित्य की सतत प्रवाहमान परंपरा में देखा जाये तो उसके परिणाम क्या होंगे? स्त्री रचनाकारों का रचना-धर्म, स्त्री-विमर्श की उठती लहरें, साहित्यिक आलोचना के स्थापित मानदंडों से कैसे टकराती हैं? ऐसे अनेक सवाल मन को घेरे रहे। इन्हीं के समकक्ष थे स्त्री-जीवन के अंतर्विरोधों से जुड़े वे यक्ष-प्रश्न जिनका सामना हर स्त्री को कभी न कभी करना पड़ता है।
ये विचार ही इस अध्ययन के प्रेरणा बिंदु हैं। मेरा यह मानना है कि अब तक सभी स्त्री-रचनाकारों की कविताओं को केवल, स्त्री विमर्श के दायरे में रखकर देखा गया है। उनकी कविताएँ अक्सर स्त्री विमर्श की प्रपत्तियों में उदाहरण-स्वरूप रखी गई हैं और उन कविताओं के परिदृश्य से बाकी सरोकारों को गायब कर दिया गया। इसलिए स्त्री-कविता में अपनी पुख्ता पहचान बनाने की स्पर्धा रही है। स्त्री-कविता के वजूद और उसके अंतर्विरोधों से सीधे मुठभेड़ करने का यह मौका, मुझे उन गहराइयों तक ले गया जिनके होने का अहसास मुझे पहले नहीं था।
सबसे पहली दुविधा स्त्री-कविता, पदबंध के चुनाव को लेकर रही। मैंने स्त्री रचनाकारों की कविताओं पर अपने अध्ययन को केंद्रित करने के कारण ही इसे स्त्री-कविता कहना उपयुक्त समझा लेकिन यह शंका बनी रही कि कविता के सन्दर्भ में ‘स्त्री-कविता’ से किस वैशिष्ट्य का बोध होगा? यह स्त्रियों की कविता है, स्त्री-मन की कविता या फिर स्त्री के प्रति सहानुभूतिपूर्ण स्वर की कविता, इस पर एकमत नहीं हुआ जा सकताI इस दृष्टि से ‘स्त्री-कविता’ का कोई निश्चित आशय नहीं है, हालाँकि ये सभी अंतर्ध्वनियाँ इस पदबंध में समाहित हैं। स्त्री-कविता का संबंध लैंगिक अस्मिता से अधिक उसके सामाजिक-सांस्कृतिक बोध तथा साहित्यिक परंपरा की विशिष्ट अभिव्यक्ति से है।
स्त्री-कविता के इस विविधवर्णी संसार को आलोचना के विचार क्षेत्र में प्रतिष्ठित करना ही इस अध्ययन का उद्देश्य हैI इस पुस्तक में, स्त्री कविता के प्रमुख सवालों पर बातचीत करते हुए, कविता और जेंडर के संबंधों को समझने की कोशिश हुई हैI हिंदी की सात कवयित्रियों पर विस्तृत लेख उनकी कविताओं को समझने के साथ-साथ उस दुनिया का लेखा-जोखा भी हैं जहाँ स्त्री और उसके परिवेश के बीच अलग-अलग संबंध पनपते हैंI इन कवयित्रियों में शामिल हैं—गगन गिल, कात्यायनी, अनामिका, सविता सिंह, नीलेश रघुवंशी, सुशीला टाकभौरे और निर्मला पुतुलI ये सभी एक अर्थ में, वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में विविध स्त्री स्वरों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं जिससे स्त्री-कविता के विविध पक्ष उभरते हैंI स्त्री कविता के इन्हीं पक्षों को केंद्र में रखते हुए स्त्री कविता का एक परिप्रेक्ष्य भी बनता हैI स्त्री कविता: पक्ष और परिप्रेक्ष्य इसी पर आधारित है।
यहाँ, अध्ययन पद्धति पर बात करना भी आवश्यक हैI सैद्धांतिक पृष्ठभूमि रचनाओं की आलोचना में अनुस्यूत है लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर सैद्धांतिकी के दबाव में रचनाओं के मूल्यांकन से बचने की कोशिश हैI पूरी पुस्तक में व्याख्या और विश्लेषण की पद्धति प्रमुख है, जिसे आलोचनात्मक प्रविधि के रूप में सायास प्रयोग किया गयाI जैसे स्त्री लेखन निजी सन्दर्भों से राजनीतिक बयान बनता है, उसी तरह स्त्री आलोचना के लिए यह अनिवार्य है कि वह रचना का पाठ-अंतःपाठ करते हुए, अंतःसूत्र की तरह व्याप्त उन बारीकियों को रेखांकित करे जो साहित्य की इतिहास परंपरा के भाष्य में अदृश्य रह जाती हैंI इस पुस्तक में विभिन्न कवयित्रियों पर जो अलग-अलग अध्याय उनमें खासा विस्तार इसी दृष्टि से है कि छोटे-छोटे विवरणों को शामिल किया जा सके और स्त्री-पक्ष के साथ-साथ अन्य सभी पक्षों को आलोचना के केंद्र में लाया जाएI इन अध्यायों में स्त्री-कविता के विभिन्न पक्ष सजीव हुए हैं और पूरा परिप्रेक्ष्य प्रस्तावना में प्रस्तावित है।
दूसरा खंड, स्त्री कविता: पहचान और द्वंद्व स्त्री-कविता की अवधारणा को लेकर स्त्री-पुरुष रचनाकारों से बातचीत पर आधारित हैI इनमें शामिल हैं—गगन गिल, कात्यायनी, अनामिका, सविता सिंह, नीलेश रघुवंशी, सुशीला टाकभौरे, निर्मला पुतुल सुमन केसरी, विपिन चौधरी, ज्योति चावला, अनुपम सिंह, पंखुरी सिन्हा, जैसिंता करकेटा, अशोक वाजपेयी, लीलाधर मंडलोई, मंगलेश डबराल, पवन करण, मदन कश्यप, जितेन्द्र श्रीवास्तव, यतीन्द्र मिश्र तथा अच्युतानंद मिश्र। इन रचनाकारों की बातों से उनकी कविताओं का मिलान करने पर उनके रचना-जगत को समझने में तो सहायता मिलती ही है, स्त्री-कविता सम्बन्धी उनकी सोच भी स्पष्ट होती हैI स्त्री-कविता को लेकर स्त्री दृष्टि और पुरुष दृष्टि में जो साम्य और अंतर है उसे भी इन साक्षात्कारों में पढ़ा जा सकता है। कभी-कभी मुझे लगता है कि अभी भी बहुत-सी बातें हैं जो अनकही रह गई। संभवतः फिर कभी उन्हें जानने-समझने का ऐसा ही कोई दूसरा अवसर मिलेगा। आशा करती हूँ कि स्त्री-कविता के अध्ययन की दिशा में यह अध्ययन सार्थक भूमिका निभाएगा। यह पुस्तक स्त्री-रचनाशीलता के माध्यम से साहित्य और जेंडर के संबंध को समझने का उपक्रम है, उसका निष्कर्ष नहींI आलोचक की निर्वैयक्तिकता व स्त्रीत्व की साझेदारी के बीच संतुलन साधने की चुनौती भी बराबर बनी रहीI इस दृष्टि से यह पुस्तक स्त्री-रचनाशीलता को लेकर गहरे आत्ममंथन का परिणाम है।
तीसरा खंड, स्त्री कविता: संचयन के रूप में प्रस्तावित है… इस सारे प्रत्यन की सार्थकता इसी बात में है कि स्त्री-कविता के माध्यम से साहित्य और जेंडर के संबंध को समझते हुए मूल्यांकन की उदार कसौटियों का निर्माण हो सके जिसमें सबका स्वर शामिल हो।
यह अध्ययन, मेरी माँ एवं बेटी तनया को समर्पित हैं जिनके बीच होने से मुझे स्त्री-अस्मिता के भिन्न धरातलों तथा समय की यात्रा में हुई ऐतिहासिक उपलब्धियों का बोध होता रहता है।
रेखा सेठी
डॉ. रेखा सेठी दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में प्रोफेसर होने के साथ-साथ आलोचक, संपादक और अनुवादक हैं।