सेठी, आर. (2001)। व्यक्ति और व्यवस्था का संबंध: स्वतंत्रोत्तर हिंदी कहानी का संदर्भ (पहला संस्करण)। नई दिल्ली, भारत: हिंदी पुस्तक केंद्र। आईएसबीएन नंबर 81-85244-57-एक्स
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी : व्यक्ति और व्यवस्था का संदर्भ
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी में ठोस परिस्थितियों के बीच अनेक ऐसे संदर्भ हैं जो व्यक्ति और व्यवस्था के संबंध को लेकर एक विचारोत्तेजक बहस का सूत्रपात करते हैं। आधुनिक भारत के इतिहास में ‘स्वाधीनता’ वह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना है जो व्यवस्था की दृष्टि से युगान्तर उपस्थित करती है। स्वाधीनता के मूल संकल्प में एक नई व्यवस्था की परिकल्पना रही जो सबके लिए समान अवसर और समान अधिकार सुनिश्चित करने वाली होगी। दुर्भाग्यवश, स्वातंत्र्योत्तर भारत में जो परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं, उनसे व्यवस्था के नाम पर एक ऐसे चक्रव्यूह का निर्माण हुआ जो साधारण व्यक्ति के लिए दमघोंटू था। स्वातंत्र्योत्तर युग की हिन्दी कहानी का व्यक्ति इन्हीं स्थितियों को जीता और भोगता दिखाई पड़ता है। दफ़्तरी माहौल और शहरीकरण की स्थितियों ने व्यक्ति में भय और असुरक्षा का ऐसा बोध पैदा किया जिसने उसकी सारी जीवंतता को सोख लिया। बहुत बार व्यक्ति को समझौते करने को विवश होना पड़ा लेकिन बहुधा ये समझौते उसके लिए ‘विकल्प’ न होकर उसकी विवशता थे।
व्यक्ति और व्यवस्था के संबंधों का एक महत्त्वपूर्ण पहलू व्यक्ति की निजता और उसकी स्वतंत्र अस्मिता से जुड़ा है। व्यक्ति की स्वत्व चेतना ने उसके सबधों की व्यवस्था में भी परिवर्तन किया। आत्मसंघर्ष, अंतर्द्वन्द्व और अस्वीकार की स्थितियाँ मिलकर विद्रोह की भूमिका तैयार करती हैं। अंधकार के वर्चस्व और नैराश्यपूर्ण स्थितियों के बावजूद इस युग में ऐसी कहानियाँ सामने आती हैं जो परिवर्तन की संभावनाओं के प्रति आश्वस्त करती हैं। विद्रोह के संदर्भ में लेखक की पक्षधरता और सामाजिक प्रतिबद्धता के प्रश्न पर भी विस्तारपूर्वक विचार किया गया है।